81 साल..। वक्त का यह चक्र छोटा नहीं होता। अपने ही नहीं, उम्र तक साथ छोड़ जाती है लेकिन, डॉ. बैजनाथ सिंह और मोहम्मद साबिर मिसाल की इस दुनिया से बिल्कुल इतर हैं। वे न केवल जिंदादिल हैं बल्कि देश के लिए जज्बा उनका सौ साल में भी जवान है। उम्र की कसौटी पर कसेंगे तो लोग बेशक बेशुमार मिल जाएंगे मगर, इनकी जीवंतता वाकई खास है- प्रेरक, दिल को छूने वाली, जोश भरने वाली..। आखिर यह संभव कैसे हो पाया? जवाब दोनों की जुबानी एक ही आया-सिर्फ और सिर्फ महान ‘महात्माÓ के स्पर्श की एक मात्र खुराक से।
सिंह और साबिर कहते हैं-भुलाए नहीं भूला जाता वो पल। ज्यादा नहीं, क्षण भर के लिए ही मिल पाए थे बापू से मगर, उनकी झलक मात्र से ऐसे रीङो, कच्ची उम्र में ही कूद गए जंग-ए-आजादी में। शायद यही वजह थी, अवसर बापू के 150वें जन्मदिवस का आया तो सिंह-साबिर के जहन में ताजा हो गया अंग्रेजों का दौर-ए-दमन और बरबस ही बोल पड़े, संभालकर रखें इस आजादी को..।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ. सिंह उम्र का शतक लगा चुके हैं तो साबिर भी उसके करीब हैं। याददाश्त साथ छोडऩे लगी है। जिसके कारण ही बात करने में मुश्किल आती है। कभी वह वर्तमान से 70-80 वर्ष पीछे चले जाते तो कभी वापस मौजूदा समय में। दैनिक जागरण से बातचीत में जैसे ही बापू का नाम आया, शरीर में नई जान आ गई मानों।
बापू का स्पर्श और वो सबक
महानगर निवासी डॉ. बैजनाथ सिंह बताते हैं, उम्र करीब 20 साल थी। आजादी की लड़ाई जोर पर थी। कब तक रोक पाता खुद को। चूंकि, मेरे नाना शिवमूर्ति कांग्रेस में थे और जवाहर लाल नेहरू के करीबी भी। उन्हें देखकर ही राजनीति के बजाय ज्ञान के हथियार से देश को आजादी दिलाने की ठानी। अंग्रेजों को उन्हीं की भाषा में जवाब देने के लिए अंग्रेजी में एमए करने का निर्णय लिया। इसी दौरान वर्धा आश्रम में बापू के साथ प्रशिक्षण का अवसर आया। बस, यही जिंदगी का टर्निग प्वाइंट बन गया। करीब दो सप्ताह के शिविर के दौरान एक दिन मुङो उठने में देर हो गई। टहलने के क्रम में कुछ देर से पहुंचा। तब अचानक बापू मेरे पास आए। कंधे पर हाथ रखकर सिर्फ इतना ही कहा-बेटा, जिंदगी की गाड़ी कभी किसी का इंतजार नहीं करती। क्षण भर का वो स्पर्श और बापू की सीख हमेशा-हमेशा के लिए मन में घर कर गई। आखिर में हमने वो पाया, जो सिर्फ सपना था-आजादी, आजादी..।
ऐसा जोश भरा, उखाड़ दीं पटरियां
मोहम्मद साबिर बताते हैं, बापू से मेरी पहली मुलाकात लखनऊ में कृषि भवन के गेट पर हुई थी। उनके जलसे में शरीक होने पर अंग्रेजों ने मुङो भी जेल भेज दिया। बापू के भाषण से प्रभावित होकर 25 जनवरी 1938 को अपने 76 साथियों के साथ महानगर रेलवे क्रासिंग पर रेल पटरियां उखाड़ डालीं। सुपरिटेंडेंट को पीट डाला। नतीजे में लाहौर की जेल में छह महीने कैद मिली। जेल से लौटा तो आतिश-ए-खामोश सहित कई किताबें लिखकर क्रांति की अलख जगाई। वह कहते हैं, बापू के इंतकाल को करीब से देखा। आज भी याद है कि जब उनके शव के करीब था, तो कई मुसलमान तिलावत कर रहे थे।