कहा जाता है कि कृष्ण की आराधना तभी पूरी होती है जब राधा का नाम भी उसमें शामिल हो। राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं और सिर्फ एक राधा के नाम जाप से मुक्ति का मार्ग मिल जाता है। राधा और कृष्ण दो नाम भले ही हैं लेकिन अर्थ दोनों का एक ही है। कृष्ण ने अपने अवतार में कर्म के साथ प्रेम की प्रधानता का महत्व भी समझाया। धर्म वैज्ञानिक पंडित वैभव जोशी के अनुसार राधा- कृष्ण का प्रेम तो त्याग-तपस्या की पराकाष्ठा है। अगर ‘प्रेम’ शब्द का कोई समानार्थी है तो वो राधा-कृष्ण है। प्रेम शब्द की व्याख्या राधा-कृष्ण से शुरू होकर उसी पर समाप्त हो जाती है। राधा-कृष्ण की प्रीति से समाज में प्रेम की नई व्याख्या, एक नवीन कोमलता का आविर्भाव हुआ। समाज ने वो भाव पाया, जो गृहस्थी के भार से कभी भी बासा नहीं होता। राधा-कृष्ण के प्रेम में कभी भी शरीर बीच में नहीं था। जब प्रेम देह से परे होता है तो उत्कृष्ट बन जाता है और प्रेम में देह शामिल होती है तो निकृष्ट बन जाता है।
‘राधामकृष्णस्वरूपम वै, कृष्णम राधास्वरुपिनम;
कलात्मानाम निकुंजस्थं गुरुरूपम सदा भजे।’
रुक्मणि ने भी समझा था राधा के प्रेम का मर्म
रुक्मणि व कृष्ण की अन्य रानियों ने कभी भी कृष्ण और राधा के प्रेम का बहिष्कार नहीं किया। रुक्मणि राधा को तबसे मानती थीं, जब कृष्ण के वक्षस्थल में तीव्र जलन थी। नारद ने कहा कि कोई अपने पैरों की धूल उनके वक्षस्थल पर लगा दे, तो उनका कष्ट दूर हो जाएगा। कोई तैयार नहीं हुआ, क्योंकि भगवान के वक्षस्थल पर अपने पैरों की धूल लगाकर हजारों साल कौन नरक भोगेगा? लेकिन राधा सहर्ष तैयार हो गईं। उन्हें अपने परलोक की चिंता नहीं थी, कृष्ण की एक पल की पीड़ा हरने के लिए वह हजारों साल तक नरक भोगने को तैयार थी।
उस समय तो रुक्मणि चमत्कृत थी, जब कृष्ण के गरम दूध पीने से राधाजी के पूरे शरीर पर छाले आ गए थे। कारण था कि राधा तो उनके पूरे शरीर में विद्यमान हैं।